Monday, September 29, 2008

मेरी सलीब

अपने कांधों पे उठाना है मुझे,
मेरी ही सलीब को
इस शहर में,
इस आसमान के नीचे ही.
यह सलीब, न किसी ने देखी, न जानी ही
अनजानी, इस सलीब को लिए कंधो पे
कोशिश करती हूँ,
पहचानने को, ख़ुद को,
ख़ुद के अन्दर से.
निकालने को, ख़ुद को,
ख़ुद की गहराई से.

और यह सलीब है कि
धकेले जाती है
ख़ुद को ख़ुद में ही...
डोबोये जाती है
अपने ही लहू के पानियों में
लिए इस सलीब को ही
जीना है मुझे
उभरना भी है
आगे बढना भी है
लिए अपनी सलीब अपने ही कांधों पे...

Vim Copyright © 2008

One of those poems, which makes me think a lot...makes me bring change, redrafting after drafting. Help me fixing it friends....I have a junoon to fix it now!

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