Thursday, April 2, 2009

bandhan

झूठे वायदे, जूठी उम्मीदों
के लग गले
आ बंधे हैं
अधपके बन्धनों के साथ...

शायद यह मैं थी..
या शायद तुम थे वो..
जो बंध के भी
बंध न पाए

या शायद यह वक़्त ही था
कुछ ऐसा....
जहाँ कीमत वक़्त की
वक़्त ही पहचान न पाया...


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4 comments:

  1. या शायद यह वक़्त ही था
    कुछ ऐसा....
    जहाँ कीमत वक़्त की
    वक़्त ही पहचान न पाया...

    वक़्त शब्द का इस्तमाल बहुत सुन्दर....अछी कविता है

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  2. Thank you Shruti, for comment and reading it...

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