झूठे वायदे, जूठी उम्मीदों
के लग गले
आ बंधे हैं
अधपके बन्धनों के साथ...
शायद यह मैं थी..
या शायद तुम थे वो..
जो बंध के भी
बंध न पाए
या शायद यह वक़्त ही था
कुछ ऐसा....
जहाँ कीमत वक़्त की
वक़्त ही पहचान न पाया...
Vim Copyright © 2009
Thursday, April 2, 2009
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Simply beautiful!
ReplyDeleteThank you Gurmeet!
ReplyDeleteया शायद यह वक़्त ही था
ReplyDeleteकुछ ऐसा....
जहाँ कीमत वक़्त की
वक़्त ही पहचान न पाया...
वक़्त शब्द का इस्तमाल बहुत सुन्दर....अछी कविता है
Thank you Shruti, for comment and reading it...
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