Tuesday, March 31, 2009

स्वीकार..

जब अपनी ही परछाई बदलती रही आकार
तब किसे करूँ प्रश्न, किसे लगाऊं पुकार

सूनी दीवारों से आ लौटती है मेरी ही आवाज़
न मुझे जाना किसी ने, न जानने की ही रखी किसी ने आस

सूरज तो निकला हर रोज़ यूँ ही,
मेरी आखों तक ही न पहूँच पाया प्रकाश

दर-ओ-दिवार पे ख़ुशी खड़ी है,
अन्दर आने की उसे भी चाह बड़ी है
चाहत से भरी मेरी तन्हाई, रोके रास्ता उसका खड़ी है
शांत आवाजों में उलझी ख़ुशी, किनारे में जा पड़ी है

बन पाती मैं ही जो उस ख़ुशी का शिकार
मन को मिल ही जाता यह करार...
तब चाहे बदलती रहती आकार.....
मेरी परछाई हो पाती मुझे ही स्वीकार...

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